दुनिया के ग़म फ़ुर्सत दें तो दिल के तक़ाज़े पूरे हों कूचा-ए-जानां! तेरी भी तो सैर-ओ-सियाहत बाकी है शहरे-तमन्ना! बाज़ आया मैं तेरे नाज़ उठाने से एक शिकायत दूर करूँ तो एक शिकायत बाक़ी है एक जरा सी उम्र में 'आलम ' कहाँ कहाँ की सैर करूँ जाने मेरे हिस्से में अब कितनी मुहलत बाकी है
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